ऑटो, मोटर-कारो से तांगे का व्यवसाय हुआ चौपट
कमलज्योति की कलम से विशेष लेख
ये बाबूजी जरा हटके.. ये बाबूजी जरा बचके… ये भइया जी थोड़ा किनारे… चल धन्नो… चल टाइगर.. चल मेरे राजा…चल मोती..चल ममता… और चल बादल.. ना जाने कितने ऐसे शब्द और वाक्य और नाम है, जो तांगे में सफर तय करने के दौरान राहों में लोगों को घुँघरू और टिक-टिक….टप-टिप-टॉप के बीच भी सुनाई पड़ता था।
एक वह दौर था जब गाँव की तंग गलियों से लेकर बड़े शहरों तक के राहों में घुंघरू की आवाज के साथ सिर्फ घोड़ा गाड़ी और बैल गाड़ियां दौड़ा करती थीं। वक़्त की जरूरत और समय की रफ़्तार ने हाथ और मशीनों के बीच ऐसा फ़ासला बना दिया कि इसे पार पाना मुश्किल हो गया..। पहले मुसाफिरों को अपने मंजिल तक पहुंचने के लिए तांगे या बैलगाड़ी से सफर करना पड़ता था। जैसे-जैसे वक्त गुजरता गया.. विकास के आगे बढ़ते पहिये के साथ तांगे के पहिए थम गए। ऑटो से लेकर टैक्सी, बसों ने तांगे के रोजी रोटी व्यवसाय को चौपट तो किया ही इनके मूल धंधे से दूसरे धंधे में जाने को मजबूर भी किया।
समय के साथ आज सबकुछ बदल सा गया है। पक्की सड़कों के साथ शहर बढ़े या शहरों के साथ सड़के बढ़ी। नए दौर ने बीते जमाने के हर चीज़ों को ही पुराना नहीं किया,अपितु यातायात के साधनों को भी अपने रास्तों से हटाया। ताँगा भी यातायात का एक बहुत ही महत्वपूर्ण और सस्ता साधन था। जमाने के साथ यह ताँगा आगे न बढ़ सका। मोटर – कार के नए अविष्कारों ने लम्बी रेस के घोड़ो की चाल धीमी कर दी।
वह तांगे का दौर ही तो था, न शोर-शराबा थीं, न प्रदूषण और न ही आज के कलयुग में होने वाली रोज की दुर्घटनाएं…। मुसाफिरों को लेकर घरों के दरवाजों तक पहुंचाने वाले तांगों का अपना रुतबा भी था। शादी-ब्याह सहित हर किसी के खुशी से लेकर गम के माहौल में ताँगा सफर का साथी बना। फिल्मों में भी राज कपूर, दिलीप कुमार, राजेन्द्र कुमार, अमिताभ बच्चन से लेकर अन्य अभिनेताओं ने तांगे के साथ अपने किरदार में खूब शोहरत हासिल की। शोले जैसी सुपरहिट फिल्म में अभिनेत्री हेमामालिनी(बसंती) के जीवनयापन के व्यवसाय से जुड़ा ताँगा उनके इज्जत को बचाने में भी कामयाब रहा। बसंती की तांगे चलाने वाली किरदार और घोड़ी धन्नो की छाप आज भी सबके जेहन में है। मशहूर अभिनेता दिलीप कुमार अभिनीत फ़िल्म ‘नया दौर’ भी वह फ़िल्म है, जो ताँगे की धीमी होती चाल और मशीन युग के आरम्भ को खूबसूरत ढंग से दर्शाती है।इस फ़िल्म में एक तांगेवाले के रूप में दिलीप कुमार ने मोटर से रेस लगाकर जीत दर्ज की और उस जमाने में सब के दिल मे जगह हासिल की। फ़िल्म हावड़ा ब्रिज, “तांगे वाला” से लेकर “मर्द” में भी ताँगे का पात्र दर्शकों के आगे हिट रहा..।
तांगे में सफर का आनन्द ही नहीं था, एक घोड़े से लेकर ताँगेवाला और इसमे सफर करने वाले मुसाफिरों के बीच अपनेपन का एक अलग भाव भी विकसित होना आम बात थी। भले ही इन तांगों में बैठने के दौरान किराए को लेकर कितनी भी झिकझिक होती रही हो।
एक वह दौर भी था, जब तक नए अविष्कार नहीं थे तब तक बिना किसी एयरकंडीशनर के चलने वाले तांगे का सफर सबको सुहाता था, मगर जैसे-जैसे मोटर-कारे आती गई और लोगों ने इस पर सफर लेना आरंभ किया.. वैसे-वैसे मुसाफिरों को मंजिल पर जल्दी पहुचने की लत सी लग गई। तांगे व बैलगाड़ी से शुरू हुआ सफर अब विमान पर चलने वालों को भी जरा सी अंतराल उबाऊ सी लगती है।
खैर आज भी किसी-किसी जगह में तांगे इक्के-दुक्के ही बचे है। बैलगाड़ियों का सफर गाँव में निजी कार्यों के लिए जारी है। बुलेट ट्रेन का ख्वाब पाले लोगों को ताँगा अब टक्कर दे पाएगा यह सम्भव भी नहीं। फिर तांगे में किराया भी कम है और सवारी न मिलने पर किसी की रोजी रोटी का साधन बन पाएगा यह भी एक सच है।
नए जमाने के साथ अत्याधुनिक वह मोटर कारे ही तो है जो मशीन होकर भी यह बता देती है कि उसे एक लीटर में कितना चलाया जा सकता है…यह करामात काश तांगे में फंदने वाले घोड़े या घोड़ियों को भी आती तो शायद किराए का पैमाना भी यहीं होता..भले ही इसमें सफर करने वाले किराए के मनमुताबिक सफर करते या न करते..और इस धंधे में लगे ताँगे वालों का जीवनयापन चलता या न चलता..।
तांगे के सड़क पर चाल के साथ अनेक व्यवसाय भी इससे जुड़े हुए थे। घोड़े के नाल और चाबुक, पहिये बनाने के साथ कई गतिविधियां संचालित थी। बहुतों का रोजी का जुगाड़ भी तांगे से था। मोटर-कारो की अपेक्षा इकोफ्रेंडली व प्रदूषण से दूर तांगे का सफर कभी शान की सवारियां भी हुआ करती थी। बग्घी में राजा-महाराजाओं व रसूखदारों की सजी-धजी सवारियां निकलती थीं। तांगों की विशेष सजावट तांगे वाले का अपने तांगे और यात्री के प्रति प्रेम और मोहब्बत का दर्पण जैसा था।
छत्तीसगढ़ के ज्यादातर जिलों में तांगे की अलग पहचान थी। रायपुर, दुर्ग-भिलाई, बिलासपुर सहित महत्वपूर्ण रेल्वे और बस स्टैंड के बाहर टैक्सी, ऑटो, कार की जगह तांगे ही होते थे। इनके लिए अलग से स्टैंड थी। ताँगेवालो का जमावड़ा और आपसी खीचतान नजर आती थीं। कोरबा जैसे औद्योगिक नगरी में भी स्टेशन से ताँगे चलते थे। 92 वर्षीय श्री ओंकार सिंह ठाकुर बताते है कि पुराना बस स्टैंड से कोरबा स्टेशन तक सीमित संख्या में ताँगे थे। कोरबा स्टेशन से बालको तक दो तांगे चलते थे। यात्रियों को स्टेशन तक छोड़ने और स्टेशन से घर तक छोड़ने में रिक्शा के साथ तांगा ही आवागमन का प्रमुख साधन थे। अब जबकि सबकुछ सुपरफास्ट हो गया है, ऐसे में छोटे शहर में गिने-चुने ही लोग है जो ताँगा चलाते हैं। तांगे का दिखना नए जमाने के बच्चों के लिए यह किसी कौतूहल व नई चीज से कम भी नहीं। छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चाम्पा जिले के शिवरीनारायण में तांगे चलाने वाले अयोध्या प्रसाद को ताँगा चलाते देख जब कुछ चर्चाएं की तो उन्होंने बताया कि वह 26 साल से यह चलाता है। बड़ी मुश्किलों से कमाई निकल पाती है। घोड़ी को खिलाना भी पड़ता है। आजकल लोग बहुत जल्दी भी पहुचना चाहते हैं, मोटर, कार का सफर लेना चाहते हैं इसलिए उनका यह धंधा अंतिम सांसे गिन रहा है। तांगे की घंटियों की आवाज मोटर- कार के तेज हॉर्न में दब गई है और सरल जीवन जीने का अहसास कराने वाला तांगे का सफर, छोटी-छोटी खुशियों के बीच जीवन में संतुष्टि देने वाला वह सफर अब यादों में ही सिमट कर रह गया है।
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