केवीके ने गाजर घास उन्मूलन जागरूकता सप्ताह का किया आयोजन

छत्तीसगढ़ बेमेतरा

बेमेतरा । कृषि विज्ञान केन्द्र, बेमेतरा द्वारा ग्राम झाल में 16 अगस्त से 22 अगस्त तक गाजर घास उन्मूलन जागरूकता सप्ताह का आयोजन किया गया। इस दौरान केवीके के विशेषज्ञों डॉ. लव कुमार, डॉ. तृप्ति ठाकुर एवं डॉ. अखिलेश कुमार द्वारा किसानों, ग्रामीणों एवं स्कूली बच्चों को गाजर घास के हानिकारक प्रभाव व उससे होने वाले रोगों के बारे में जानकारी देने जागरूकता कार्यक्रम का आयोजन किया गया। 

केवीके के वरिष्ठ वैज्ञानिक एवं प्रमुख तोषण कुमार ठाकुर ने जानकारी दिया कि गाजरघास एक प्रकार का विदेशी मूल (मैक्सिको-अमेरिका) खरपतवार है। भारत में सर्वप्रथम यह पूणे (महाराष्ट्र) में वर्ष 1955 में दिखाई दिया था। ऐसा माना जाता है कि हमारे देश में इसका प्रकोप 1955 में अमेरिका अथवा कनाडा से आयात किये गये गेहूँ के साथ हुआ है। परंतु अल्पकाल में ही यह गाजरघास पूरे देश में एक भीषण प्रकोप की तरह घुसपैठ कर चुकी है।

10000-25000 अत्यंत सूक्ष्म बीज पैदा कर सकता है। बीजों की सुषुप्तावस्था नही होने के कारण बीज जमीन में गिरने के बाद नमी पाकर पुनः अंकुरित हो जाते है।

गाजरघास का पौधा लगभग 3-4 माह में अपना जीवन चक्र पूर्ण कर लेता है। इस प्रकार यह एक वर्ष में 2-3 पीढ़ी पूरी कर लेता है व अकृषित, कृषि क्षेत्र, रेल लाइन एवं सड़कों के किनारे बहुतायत मात्रा में हर मौसम में पायी जाती है। इसके बीज अत्यंत सूक्ष्म, हल्के और पंखदार होते है। सड़कों और रेलमार्गों पर होने वाले यातायात के कारण भी यह संपूर्ण भारत में आसानी से फैल गई है। नदी नालों और सिंचाई के पानी के माध्यम से भी गाजर घास के सूक्ष्म बीज एक स्थान से दूसरे स्थान पर आसानी से पहुंच जाते है। बुखार (हे-फिवर), दमा आदि जैसी गंभीर बीमारियां हो जाती है। पशुओं के लिए यह गाजरघास अत्यधिक विषाक्त होता है। इसके खाने से पशुओं में अनेक प्रकार के रोग पैदा हो जाते है व दुधारू पशुओं के दूध में कड़वाहट के साथ दूध उत्पादन में भी कमी आने लगती है। इस खरपतवार के प्रकोप से फसलों की पैदावार में अत्यधिक कमी आती है। पौधे के रासायनिक विश्लेषण से ज्ञात हुआ है कि इसमें सेस्क्यूटरपिन लैक्टोन नामक विषाक्त पदार्थ पाया जाता है जो फसलों के अंकुरण एवं वृद्धि पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। इस खरपतवार को फूल आने से पहले हाथ से उखाड़कर इकट्ठा करके जला देने से इसे काफी हद तक नियंत्रित किया जा सकता है। शाकनाशियों के प्रयोग से इस खरपतवार का नियंत्रण आसानी से किया जा सकता है। इन शाकनाशी रासायनों में एट्राजिन, एलाक्लोर, डाईयूरान, मेट्रीब्यूजिन, 2,4-डी, ग्लाइफोसेट आदि प्रमुख है। किसान भाई इसका उपयोग बहुत अच्छा कंपोस्ट बनाने में भी कर सकते है।