दंतेवाड़ा । फागुन मड़ई के सातवें दिन गंवर मार जैसी महत्वपूर्ण रस्म होती है। इस दिन रात्रि के अंतिम पहर में ‘‘गंवर‘‘ शिकार का प्रदर्शन किया जाता है। फागुन मड़ई में सम्पन्न होने वाले शिकार नृत्यों में ‘‘गंवर मार‘‘ सबसे लोकप्रिय है। बस्तर में पाये जाने वाले दुर्लभ प्रजाति के ‘‘वन भैसा (गौर)‘‘ को स्थानीय हल्बी बोली में गंवर कहा जाता है।
उल्लेखनीय है कि मंडई में सम्पन्न होने वाले शिकार नृत्यों में ‘‘गंवर मार‘‘ नृत्य की रस्म सबसे भिन्न होती है। इसमें स्थानीय समरथ परिवार के व्यक्ति का ‘‘गंवर‘‘ का रूप धारण करता है तथा इसका शिकार का प्रदर्शन माई जी के प्रधान पुजारी द्वारा किया जाता है। इस रस्म की शुरुआत माई जी के मंदिर से बॉस के टोकरे में कलश स्थापना स्थल एवं प्रसाद ले जाने के साथ होती है। इसके बाद सेमर के कंटीले वृक्ष से तैयार ‘‘पंडाल गुड़ी‘‘ की लकड़ी से ‘‘नरसिंग देव‘‘ की चौकोर आकृति तैयार की जाती है। इस नरसिंग देव की विशेष आकृति को चार व्यक्ति कंधे पर लेकर मेंडका डोबरा की ओर जाते है। इसके सामने ग्रामीण हाथ में गमछे को लपेटकर कोडे की तरह बनाकर भागते हुए रास्ते में आने वाले प्रत्येक व्यक्ति पर प्रहार करते चलते है।
नरसिंग देव की सवारी कलश स्थापना स्थल से होकर दूसरे रास्ते से वापस सिंह ड्योढ़ी की ओर लायी जाती है। इसके बाद वहीं ग्रामीण लंगोट धारण कर पंडाल गुड़ी से कलश स्थापना स्थल की ओर जाते हैं। इस दौरान 12 विभिन्न ग्रामों के ग्रामीणों द्वारा इस ‘‘गंवर‘‘ का पीछा कर हांका लगाने का अभिनय किया जाता है। उनके साथ जिया बाबा शिकारी के रूप में बंदूक लिये होते है। इधर-उधर भागने के बाद गंवर छुप जाता है। तत्पश्चात थक-हारकर ग्रामीणों द्वारा अपने साथ एक ‘‘सिरहा‘‘ को लेकर देवी का आह्वान किया जाता है, जिसके माध्यम से गंवर का पता मिलता है। इसके बाद गंवर का प्रतीकात्मक शिकार प्रधान पुजारी द्वारा अपने बंदूक से हवाई फायर कर किया जाता है। इसके बाद के क्रम में माई जी के मंदिर एवं पंडाल गुडी में गंवर मार रस्म की प्रक्रिया को फिर से दोहराई जाती है। इस प्रकार ‘‘गंवर मार‘‘ रस्म का समापन हो जाता। कल मंडई के नौवें दिन नवम पालकी निकलती है, जिसमें आवंरामार, ‘‘गारी‘‘ कार्यक्रम एवं होलिका दहन रस्म का आयोजन होगा।