जंगल छोड़े वर्षों बीते लेकिन नहीं मिला राजस्व गांव का दर्जा

मध्यप्रदेश

सरकारी योजनाओं का नहीं मिल पा रहा है लाभ

38 वनग्रामों के आदिवासियों तक नहीं पहुंची योजनाएं

भोपाल।
कई पीढ़ियों से हमारी रक्षा करते आ रहे बड़ा देव को जंगल से बाहर ले आए। परिवार के साथ नई जगह गांव बसा लिया लेकिन सरकार इन्हें राजस्व गांव मानने को तैयार नहीं है। आज भी कागजों पर यह वनग्राम ही हैं और हमारे खेत भी वनभूमि में ही है। यहां से एक किमी दूर के गांव के किसानों की फसल खरीदी केंद्रों में बिकती है लेकिन हम कम कीमतों में व्यापारियों को बेचने को मजबूर होते हैं।
यह दर्द है बाबई तहसील के बागड़ा तवा गांव से सात किलोमीटर दूर स्थित नया चूरणा गांव के भारती उइके का। इसी तरह का दर्द सतपुड़ा टाइगर रिजर्व से विस्थापित किए गए 38 गांवों के हजारों आदिवासियों का है। उन्हें जंगल से बाहर आने के 10 साल बाद भी राजस्व गांव का नहीं होने से सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिल पा रहा है।
लोकसभा चुनाव के लिए प्रचार चरम पर है लेकिन विस्थापित आदिवासियों की समस्याओं का मुद्दा किसी राजनीतिक दल के एजेंडे में है। कोई राजनेता भी इन्हें हल करने का विश्वास दिला रहा है।
14 अप्रैल को पिपरिया आए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि नर्मदापुरम के किसानों को सम्मान निधि के 400 करोड़ मिले हैं। आने वाले पांच सालों में दो हजार करोड़ रुपये मिलेंगे। लेकिन यह सम्मान निधि विस्थापित गांवों के किसानों को नहीं मिल पा रही है क्योंकि यह जमीन वन विभाग ने दी है जो राजस्व रिकार्ड में दर्ज ही नहीं है।
राजू उइके बताते हैं कि जंगल में हम महुआ, चिंरौजी और तेंदूपत्ता बीन लेते थे। आंवला, आम से लेकर कई फल मिल जाते थे यहां आंगन तो है कुछ ने दशहरी आम भी लगा लिए है लेकिन देशी आम, नीम तैयार होने में समय लगेगा। तिनका-तिनका जोड़ रहे हैं। बस सरकार से मदद मिल जाए तो राहत मिले।